समग्र नैतिक क्रान्ति द्रष्टा-लोकाधिष्ठान श्रीराम

समग्र नैतिक क्रान्ति द्रष्टा-लोकाधिष्ठान श्रीराम 
समान अधिकार के प्रणेता लोक अधिष्ठान श्रीराम ने वन में भरत से कुशलक्षेम जानने के पश्चात अयोध्या के कर्मचारियों का सही ध्यान देने के विषय में उपदेश प्रदान किया।
कालातिक्रमणाच्चैव     भक्तवेतनयोर्भृताः।
भर्तुकुप्यन्ति दुष्यन्ति सोऽर्न: सुमहान्स्मृतः।।  
अर्थात्- भोजन और वेतन समय पर न मिलने से नौकर मालिक की निंदा करते हैं, कर्मचारियों का ऐसा करना, एक बड़े अनर्थ की बात है। 
शासक वर्ग द्वारा श्रमिक वर्ग के प्रति अवहेलना राज्य के पतन का कारण बनती है। लोक में व्यवस्था स्थापित करना शासन स्तर की जिम्मेदारी बनती है। शासक और श्रमिक वर्ग एक दूसरे के पूरक बन कर रहते हैं तब ही राष्ट्र का उत्थान होता है। जब इनके बीच समन्वय स्थापित नहीं होता है तब राष्ट्र प्रगति नहीं कर सकता है। शासक वर्ग श्रमिक वर्ग का शोषण करने में तत्पर रहे और श्रमिक वर्ग कामचोरी में संलग्न रहे, ऐसी स्थिति में राष्ट्र प्रगति की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। दोनों एक दूसरे के प्रति संजीदा रहें और एक राष्ट्र परिवार का भाव रखें, तभी राष्ट्र सुरक्षित है। एक दूसरे के प्रति असंवेदना की भावना द्वैत भाव को पुष्ट करती है। अलगाववाद की भावना राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा है। अद्वैत चरित्र से ही अखण्ड राष्ट्र का निर्माण संभव है। लोक अधिष्ठान श्रीराम का चरित्र सम्पूर्ण लोकमान्य अद्वैत चरित्र दर्शन है, यही विशेषता श्रीराम चरित्र को अद्वितीय बनाती है।
लोक में कितना भी विध्वंस हो गया हो? सृजन का कर्म करो। अनादिकाल से मानवजाति ने अनगिनत विनाश लीलाओं को देखा है। दैवीय आपदाओं के अलावा मानवीय कुबुद्धि भी बड़े स्तर पर युद्ध, तानाशाही, शोषण एवं एकाधिकार के माध्यम से मानवीय जीवन में पतझड़ की भूमिका प्रस्तुत करती रही है। लोक अधिष्ठान श्रीराम का चरित्र मानवीय जीवन में बसंत का उत्सव मनाने के लिए प्रेरित करता है। लोक में परंपरा मृत नहीं है, यह तो साक्षात लोक में विचरण करती है। आगामी पीढ़ियों को हम परंपरा के रूप में सभ्यता और संस्कृति रूपी विरासत देकर जाते हैं। इसलिए लोक में हमारे आचरण विशुद्ध हों, लोक के प्रति एक अभिन्न रिश्ता रखते हुए प्रेम, सत्य एवं  नीति का आचरण करना चाहिए। हमारे सारे रिश्ते एवं संबंध लोक से ही विनिर्मित होते हैं। हमें लोक को एक जीवंत देवता के रूप में देखना चाहिए।
जब बड़े भ्राता होने के कारण लोक अधिष्ठान श्रीराम का राज्याभिषेक हो रहा था, तब उस समय उन्होंने परिवार जनों से कहा, हम सभी भाई एक साथ खेले एवं पढ़े हैं, फिर बड़े होने के कारण मेरा ही राज्याभिषेक क्यों हो रहा है? इस महान कुल में यही एक गलत रीति है।
बिमल वंश यह अनुचित एकू।
बन्धु बिहाय बड़हि अभिषेकू।।
लोक अधिष्ठान श्रीराम अपने महान कुल की परंपराओं का परिपालन पूर्ण निष्ठा से करते थे लेकिन उन बातों को भी गलत ठहरा दिया जिनसे मानवीय जीवन में विषमता को पोषित होते हुए देखा था। 
लंका विजय पश्चात विभीषण पालकी में पर्दा लगाकर सीता माता को ला रहे थे, तभी श्रीराम ने उन्हें पर्दा हटाने का आदेश दिया।
वाल्मीकि रामायण में वर्णन मिलता है-
न गृहाणि न वस्त्राणि न प्रकारास्तिरस्क्रिया:।
नेदृशा  राजसत्कारा  वृत्तमावरणं   स्त्रियाः ।। 
अर्थात्- स्त्रियों के लिए न घर, न चादर का घूंघट, न कनात आदि की चहारदीवार, न चिक आदि पर्दा और न इस प्रकार का राजसत्कार ही आड़ (ओट) करने वाला है जैसा कि तुम कर रहे हो।
तदानय  समीपं  मे  शीघ्रमेनां  विभीषण।
सीता पश्यतु मामेषा सुहृद्गणवृतं स्थितम्।। 
अर्थात्- सो हे विभीषण! तुम शीघ्र बिना पर्दा के ही सीता को मेरे पास ले आओ, जिससे ये मेरे सुहृदयगण सीता को देख सकें।
लोक अधिष्ठान श्रीराम मर्यादा की प्रतिमूर्ति सीता की  स्वतंत्रता एवं गरिमा का मान रखने के लिए पालकी से पर्दा हटाने का विभीषण को आदेश प्रदान करते हैं। मर्यादा और पर्दा प्रथा दो विपरीत ध्रुव हैं। मर्यादा से नारी का सम्मान बढ़ता है जबकि पर्दा प्रथा से नारी का सम्मान धूमिल होता है। मर्यादा और आत्मसम्मान दोनों एक दूसरे के पर्याय हैं। पर्दा प्रथा या किसी भी प्रकार का लिबास जिससे नारी का आत्मसम्मान कमतर होता हो, वह गुलामी का प्रतीक है। नारी स्वतंत्रता और सशक्तिकरण के लिए मर्यादायुक्त जीवन नारी गरिमा, शील तथा देवी भाव को पुष्ट करता है। इसके विपरीत जब नारी अभिव्यक्ति के नाम पर नग्नता का प्रदर्शन करती है, उसी समय उसका देवी स्वरूप धूमिल हो जाता है। किसी पुरुष द्वारा नारी के प्रति भोग्या भाव, विचार तथा क्रिया का प्रदर्शन उसके पुरुषत्व के प्रति संदेह पैदा कर देता है। जो पुरुष वास्तविक बोधशक्ति प्राप्त होते हैं, उनके अंदर नारी के प्रति भोग्या भाव नहीं बल्कि मातृ भाव होता है। नारी से उत्पन्न पुरुष नारी मात्र के प्रति मातृ भाव रखने से पुरुष जाति में उत्पन्न होने की सार्थकता सिद्ध करता है। दुराचार की कुत्सित मानसिकता वाले धिक्कारे जाने के ही हकदार हैं, कह सकते है कि वह अपनी जननी के पिए दूध को हराम घोषित कर रहे हैं। लोक अधिष्ठान श्रीराम ने अपनी सगी मां कौशल्या जैसा ही मातृ भाव वनवास दिलाने वाली सौतेली मां कैकई के प्रति प्रकट किया था। लंका विजय पश्चात अयोध्या में राजसिंहासन पर श्रीराम सपत्नीक विराजमान हुए थे और आज भी समूचे विश्व में बने मंदिरों में सीता सहित विराजित हैं। मन में विचार उठना स्वाभाविक है कि अगर श्रीराम ने सीता जी को वनवास (परित्याग) दिया था, फिर युगल जोड़ी सीताराम का संकीर्तन और उनके अर्चा विग्रहों की मंदिरों में प्राण प्रतिष्ठा क्यों हो रही है। श्रीराम धरती ही नहीं तीनों लोकों के राजा थे और वाल्मीकि आश्रम उनके ही अधिकार क्षेत्र में आता था। जहां अपने छोटे भाई लक्ष्मण के साथ गर्भावस्था में भेजना और छोटे भाई शत्रुघ्न का वाल्मीकि आश्रम में जाना होता था। जिस समय लव-कुश का जन्म हुआ था, उस समय शत्रुघ्न आश्रम में ही थे, उन्होंने नवजात बालकों का मस्तक सूंघा और हृदय आनंद से भर गया। अयोध्या से मथुरा की ओर जाते समय वह रात्रि विश्राम वाल्मीक आश्रम में ही करते थे और सीता माता का दर्शन करते थे। शत्रुघ्न द्वारा दो नगर मधुरा (मथुरा) तथा विदिशा स्थापित किए गए थे। शत्रुघ्न के एक पुत्र सुबाहु मथुरा के राजा बने तथा दूसरे पुत्र शत्रुघाती विदिशा के राजा बने। लोक अधिष्ठान श्रीराम बाल्यकाल में विश्वामित्र ऋषि के सानिध्य में रहे हैं, इसलिए वह ऋषि शक्ति से परिचित हैं। गर्भावस्था में अपनी पत्नी को वाल्मीक ऋषि के सानिध्य तथा प्रभाव में भेजने का ही परिणाम लव-कुश सर्वशक्तिमान बने, कह सकते हैं यह उनकी एक दूरगामी योजना थी। दूसरा पक्ष आत्मवान के लिए देह के कष्ट मायने नहीं रखते हैं, फिर लोक अधिष्ठान श्रीराम जिनकी कीर्ति की पताका त्रिलोक में फहरा रही है, वह किस प्रकार अपनी पत्नी के प्रति लेश मात्र अपशब्द सुन सकते थे। वाल्मीक आश्रम जहां रामायण जैसे महान ग्रंथ का लेखन हुआ हो, उस आश्रम को साधारण समझना ही मूर्खता है। महाविज्ञानी वाल्मीक ऋषि जिनके तप, ज्ञान और सामर्थ्य की कल्पना सामान्य बुद्धि नहीं कर सकती हैं, वे ही श्रीराम पर सीता वनवास का दोष मढ़ते हैं। आश्रम में राजमहल जैसे भोग साधन नहीं होते लेकिन आत्मशांति और उत्थान के लिए अनुकूल वातावरण होता है। वाल्मीकि ऋषि के सानिध्य से ही सीता माता ने लव-कुश को वीर शिरोमणि बनाया था, वे वीर अयोध्या में हो रहे अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को बांध लेते हैं और सभी अयोध्या के महान वीरों का अभिमान नष्ट कर देते हैं। इस घटना से सिद्ध हो जाता है कि राजमहल के वास से वाल्मीकि आश्रम का वास श्रेष्ठ था। वाल्मीकि आश्रम में पले बढ़े श्रीराम के बालक वह सब प्राप्त कर के आए थे, जिसके लिए राजमहलों से राजकुमारों को वन में ऋषियों के निकट जाना पड़ता था। 
लव-कुश ने अपनी सत्यमेधा के बल पर श्रीराम चरित्र को अयोध्या के समाज के मध्य यथार्थ वर्णन किया था, जिसके उपरांत संशयग्रस्तों को अपनी मूढ़ता पर बड़ा खेद हुआ था। वाल्मीकि रचित रामायण से श्रीराम-सीता का समग्र जीवन चरित्र सभी अयोध्यावासियों ने श्रवण  करने के उपरांत मां सीता का समूचे अयोध्या द्वारा सत्कार हुआ था। युग बीते लेकिन मां सीता की कीर्ति कालजयी हो गई है। अगर श्रीराम वर्तमान सुख सुविधा का ख्याल रखते हुए अपनी धर्मपत्नी सीता को वाल्मीकि आश्रम न भेजते, तब जगत के समक्ष सीता माता का विराट चरित्र उपस्थित न हो पाता। सीता वनवास सनातन विधर्मीयों द्वारा फैलाई भ्रान्ति है, एक आक्षेप है। आश्रमवास और वनवास में जमीन आसमान का अंतर होता है। वाल्मीकि आश्रम सृष्टि का सबसे सुरक्षित स्थान था जबकि वनवास में हर पल खतरा उपस्थित रहता है। राक्षसों और जंगली जानवरों का खतरा रहता है। श्रीराम के साथ सीता वनवास व्यतीत कर चुकी थीं, तब उनका अपहरण हुआ था लेकिन वाल्मीकि आश्रम में कोई अप्रिय घटना का उल्लेख नहीं मिलता है। लोक अधिष्ठान श्रीराम द्वारा कुछ काल खंड के लिए वाल्मीकि ऋषि के आश्रम में सीता को भेजना एक प्रायोजित घटना थी, जिसका उद्देश्य जगत के समक्ष सीता के महान चरित्र और कीर्ति को प्रकट करना था। वाल्मीकि आश्रम वास से सीता माता का विराट यश सम्पूर्ण जगत में प्रसारित हो गया। 
✍️अमित निरंजन 
लेखक- समग्र नैतिक क्रान्ति द्रष्टा राष्ट्रादर्श श्रीराम
उन्नायक - श्रीराम नवमी राष्ट्रीय चरित्र दिवस अभियान
samagranaitikkranti@gmail.com 




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