देवासुर संग्राम सृष्टि का विधान

देवासुर संग्राम के इतिहास पर दृष्टिपात करने के पश्चात् यही निष्कर्ष निकला जब से सृष्टि अस्तित्व में आई तभी से देवासुर संग्राम का आगाज हुआ। सटीक, सरल, संक्षिप्त भाषा में कहा जाए तो अतिश्योक्ति न होगी- देवासुर संग्राम सृष्टि का विधान।
वाल्मीकि रामायण में वर्णन है -
असृजद् भगवान् पक्षौ द्वावेव हि पितामहः।
सुराणामसुराणां  च  धर्माधर्मौ  तदाश्रयौ।।
अर्थात्- भगवान ब्रह्मा ने सुर और असुर दो ही पक्षों की सृष्टि की है, धर्म और अधर्म ही इनके आश्रय हैं।
श्रीमदभगवद्गीता में वर्णन है- द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च। 
अर्थात्- संसार में मनुष्य की दो प्रकार की सृष्टि है, जिसकी रचना की जाए वही सृष्टि है अर्थात् दैवी संपत्ति और आसुरी संपत्ति से युक्त रचे हुए प्राणी ही यहाँ भूत- सृष्टि के नाम से कहे जाते हैं।
दैवीसंपदावान धर्माचरण करने वाले और आसुरीसंपदावान अधर्म का आचरण करने वाले होते हैं।
दो विपरीत मानसिकता, विचारधारा, आदर्श, परंपरा, संस्कृति एवं पद्धति वाले एकमत नहीं हो सकते। यही इतिहास रहा अनादि सृष्टि का, जहां एकतंत्र के शासन में समूची धरती कभी नहीं रही। राष्ट्र, धर्म, संस्कृति, भाषा, रंग, क्षेत्र एवं लिंग भेद आदि अनेकता से संलग्न पाए जाते हैं। विश्व-विजेता के रूप में इतिहास जिन्हें भी रेखांकित करता, उनकी श्रेणी शासक, योद्धा और आक्रमणकारी वाली ही है। बल के आधार पर विजय का ध्वज भवनों पर फहराना आसान है, जबकि जनमानस के हृदय पर विचारों का परिवर्तन लाना आसान नहीं है, एक तरह से असंभव जैसा है।
सृष्टि की उत्पत्ति की कहानी धार्मिक, भौगोलिक, सांस्कृतिक एवं जातिगत आधार पर विविधता से भरी हुई है। मानव के समुदाय-कबीले सृष्टि के प्रारंभकाल से ही वैचारिक रूप से अपने को जुड़ा हुआ महसूस करते हैं। कुछ दशक की जिंदगी के मायने यहां ख्यालात में नहीं आते जबकि लाखों, हजारों वर्षों का गुजरा हुआ समय मनोकल्पना में उड़ाने भरता है। इंसान जो प्रत्यक्ष दिखता है, असल में होता नहीं है। इंसान का अंत:करण ही उसकी असली पहचान है।
क्या अंत:करण का परिवर्तन सहज है? अवकाश शून्य हृदय वाली आबादी से कब तक समन्वय बिठा के रहा जा सकता है। अनाचार के विरुद्ध चुप बैठना शांति नहीं कहलाती बल्कि कायरता है। श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन के अंतःकरण से कायरता के विचार परिवर्तन हेतु श्रीमदभगवद्गीता का ज्ञान प्रदान किया था। वर्तमान काल में भी श्रीकृष्ण द्वारा प्रदत्त ज्ञान प्रासंगिक है क्योंकि इंसान कभी-कभी कायरता को साधुता समझ बैठता है। मानव समाज के इस भ्रम का निराकरण -श्रीकृष्णार्जुन सम्वाद ही है।
धरती चीखे गाय पुकारे, 
कहां हो अर्जुन हमारे।
पाञ्चजन्य कृष्ण ने फूंक दिया, 
देवदत्त शीघ्र बजा डालो।
दसों दिशाएं पुकारें, 
गांडीव उठा डालो। 
ह्रास होती देव संस्कृति,
भारत में आई जिहादी विकृति।
दुर्योधन को बचाने वाले, 
कर्ण को वेध डालो। 
द्रौपदी चीरहरण दर्शक भीष्म को, 
तीरों की शैय्या पर सुला डालो।
दुशासन रक्त द्रौपदी केश मांगे,
अंधराष्ट्र को धर्मराष्ट्र बना डालो।
दुर्जन पक्षधर द्रोणाचार्य का पद भुला डालो,
भारत अब महाभारत (विश्व विजेता) बना डालो। 
हे युगार्जुन ! देवासुर संग्राम सृष्टि का विधान।
सत्यपराक्रम के नाम अनन्तविजय का कीर्तिमान।।
                                                अमित निरंजन

                                                


भागवती भारत निर्माण-
भारत राष्ट्र की मौलिक संस्कृति, पुरातन संस्कृति या कहें स्वत्व (आत्मा) की ओर ले जाने वाली संस्कृति का चिंतन जब बौद्धिक चेतना करती है तब नि:संदेह वह संस्कृत भाषा के धरातल पर अपने को खड़ा पाती है।
संस्कृत भाषा में लिखित रामायण ग्रंथ आदि काव्य एवं रचनाकार महर्षि वाल्मीकि जी आदिकवि की संज्ञा से विभूषित हैं। महर्षि वाल्मीकि जी की श्रेणी में आर्ष ग्रंथ के महान रचनाकार महर्षि वेदव्यास जी का नाम भी स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। वेदों के विभाग करने से कृष्णद्वैपायन को वेदव्यास की उपाधि प्राप्त हुई। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद के नामों से हम समग्र वेदों के ज्ञान से परिचित हुए। 
महाभारत जैसे विशाल ग्रंथ जिसमें श्रीकृष्णार्जुन संवाद (श्रीमद्भगवद्गीता) को लिपिबद्ध करने का श्रेय भी दिव्य द्रष्टा महर्षि वेद व्यास जी को जाता है। महाभारत को पंचम वेद की उपाधि प्राप्त है। श्रीमद्भागवत, अठारह पुराण, ब्रह्मसूत्र तथा मीमांसा जैसे महान ग्रंथ लिखने वाले महर्षि वेदव्यास जी दिव्य दृष्टि संपन्न थे। 
महर्षि वेदव्यास जी का आविर्भाव आषाढ़ पूर्णिमा को हुआ था। अज्ञानतिमिरनाशक लेखनी के महानायक महर्षि वेदव्यास जी के जन्मोत्सव को ही समूचे अध्यात्म जगत में 'गुरु पूर्णिमा' के रूप में मनाया जाता है।
 महर्षि वेद व्यास जी ने कलयुग के घटनाक्रम अपनी दिव्य दृष्टि से भलीभांति देख लिए थे। जिनका वर्णन श्रीमद्भागवत में किया तथा निराकरण भी प्रदान किया।हम सब धार्मिक, सांस्कृतिक, पुरातनी, सनातनी गुरु- शिष्य परंपरा को महत्व प्रदान करने वाले प्रतिवर्ष महर्षि वेदव्यास जी के आविर्भाव दिवस को 'गुरु पूर्णिमा' के रूप में सच्चे अर्थों में मनाकर भागवती भारत का निर्माण करें।
श्रीमद्भागवत की महान शिक्षाओं में कलयुग के रहने के पांच निवास स्थानों के परित्याग का वर्णन है- जुआ, शराब (दुर्व्यसन), व्यभिचार, मांसाहार (हिंसा) तथा स्वर्ण (भ्रष्ट धन)।
नि:संदेह व्यक्ति, परिवार, समाज व राष्ट्र इनका परित्याग करके समुन्नति को प्राप्त होगा। 
आदिगुरु महर्षि वेदव्यास जी के जन्मोत्सव आषाढ़ पूर्णिमा (गुरुपूर्णिमा) पर ली गई शिक्षा भारत राष्ट्र की पीढ़ी दर पीढ़ी को भागवती भारत निर्माण की ओर अग्रसर करती रही है।
✍️अमित निरंजन 
लेखक- समग्र नैतिक क्रान्ति द्रष्टा राष्ट्रादर्श श्रीराम उन्नायक- श्रीराम नवमी राष्ट्रीय चरित्र दिवस अभियान 
samagranaitikkranti@gmail.com 



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