समग्र नैतिक क्रान्ति द्रष्टा-सौम्यमूर्ति श्रीराम

समग्र नैतिक क्रान्ति द्रष्टा-सौम्यमूर्ति श्रीराम  

माता-पिता के लिए संतानें सृष्टा का एक अनमोल उपहार हैं  संतानों के लिए माता-पिता धरती पर विधाता की करुणा और कृपा का साक्षात अवतार हैं। प्रत्येक अभिभावक की यही चाह रहती है कि उनकी संतानों में सौम्यता का गुण हो, सौम्यमूर्ति श्रीराम जैसा व्यक्तित्व हो। सौम्यमूर्ति श्रीराम किशोरावस्था में पिता दशरथ की इच्छा से महर्षि विश्वामित्र जी के साथ सहर्ष महलों के सारे सुखों को त्यागकर यज्ञ की रक्षा हेतु चले गए, राजतिलक के दिन वनवास भी सहर्ष स्वीकार कर लिया।
 
वाल्मीकि रामायण में जनकसुता कथानुसार-
दीयमानां न तु तदा प्रतिजग्राह राघवः।
अविज्ञाय पितुश्छन्दमयोध्याधिपते: प्रभोः।। 
अर्थात् - उस समय अपने पिता अयोध्या नरेश  महाराज दशरथ के अभिप्राय को जाने बिना श्रीराम ने राजा जनक के देने पर भी मुझे ग्रहण नहीं किया। 
पिता के विचार, अभिप्राय को महत्व न देकर संतानों के क्रियाकलाप भावी भविष्य में अवनति के रूप में नियति बनते हैं। जिन्होंने तन मन धन लगाकर जवान होने तक संतान को प्राथमिकता दी, नि:संदेह वह सच्चे हितचिंतक हैं। अगर उनकी सम्मति किसी विषय पर नहीं है तो उसमें संतान का वास्तविक हित ही उन्हें दिख रहा होगा। स्वार्थ से परिपूर्ण संसार में प्रतिदान की भावना से रहित माता-पिता के अलावा द्वितीय कौन हो सकता है।
राष्ट्रादर्श श्रीराम के देश में माता-पिता से अलग रहने की यूरोपीय परंपरा आगामी भविष्य में कितने भयानक परिणाम देगी, इसका अनुमान हमें नहीं है। हमें अपनी गलती को सुधारने की सख्त आवश्यकता है, घर में माता-पिता का सम्मान करना पुनीत कर्तव्य है, जिससे हमारे बच्चे देखकर हमसे अच्छा व्यवहार करना सीखें और हमें चौथेपन में दुत्कार देकर वृद्ध आश्रम का रास्ता न दिखाएं। प्रत्येक आयोजन में माता-पिता का घर में रहना नितांत आवश्यक है, ध्यान देने की बात है हम अपने घर किसी ऐसे वीआईपी को मेहमान रूप में मत बुलाए जिनके आने से पहले अपने माता-पिता को डाइनिंग हॉल में ना आने की सख्त मना ही कर दी जाती है। हमारे राष्ट्र आदर्श श्रीराम ने अपने पिता के मानबिंदु के लिए राजा जैसे पद को ठुकरा दिया, हम सबको प्रेरणा प्रदान की। समय की आहट है, परंपरा तो परंपरा होती है, जो आज अपने माता-पिता को वनवास अर्थात् वृद्ध आश्रम भेज रहे हैं, उनकी संतानें उनके साथ वैसा ही व्यवहार निश्चित करेंगी। संतानों का अपने अभिवावक के सपनों को पूर्ण न करना, अवज्ञा करना एवं उनका अपमान करना एक गलत परंपरा का बीजारोपण है। माता-पिता के त्याग, श्रम एवं योगदान का आकलन न करने वाले यह क्यों नहीं सोचते कि जिन्होंने स्वयं के शरीर के हिस्से को देकर उन्हें निर्मित किया है, उनके साथ रूखा व्यवहार निश्चित तौर पर मूढ़ता ही है।
'सौम्यता' समग्र अंतर्निहित दैवीय सद्गुणों के अभिवर्धन एवं प्रस्फुटन का नाम है, जिसे सत्पथाचार के माध्यम से ही प्राप्त किया जा सकता है, सत्पथाचार अर्थात् महापुरुषों के द्वारा चले हुए महान पथ का अनुकरण करना। युवावस्था मे संघर्षों की क्षमता होती है, संघर्षों से अंतर्निहित शक्ति का स्रोत फूटकर आता है। जिनके जीवन में संघर्ष और चुनौतियां नहीं है, वे विजेता नहीं बन सकते हैं। जो विजेता नहीं बना, उसका जीवन 'मृत' कहा जायेगा क्योंकि जीवन में अमृत का आनंद विजय के पश्चात ही प्राप्त होता है। 
नीतिरस्मि जिगीषताम् अर्थात् नीति का आश्रय लेने से ही विजय प्राप्त होती है। हमारी भारतीय संस्कृति पूर्णता की संस्कृति है, शास्त्र अनुसार अपूर्ण जीव को मोक्ष नहीं मिलता है, जिस कारण बद्ध जीव को हजारों- लाखों बार अनेकानेक योनियों में जन्म-मरण की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। पितृ-तर्पण हमारी संस्कृति में अपने पूर्वजों के प्रति आदर प्रदर्शित करने की अद्वितीय विधा है, ऐसा उदाहरण समूचे विश्व में अन्यत्र देखने को नहीं मिलेगा। महान राष्ट्र, संस्कृति के वंशजों को माता पिता से शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक स्थिति से सक्षम होने के पश्चात दुर्व्यवहार शोभा नहीं देता। यौवनावस्था में घर से बाहर रहकर संघर्ष पूर्वक जीवनयापन कर सकते है, जिससे विकास भी हो जायेगा। अगर श्रीराम वनगमन न करते तो सम्पूर्ण मानवता के समक्ष उनका विराट चरित्र अतिशय पूज्यनीय न बन पाता। 
रामायण महाग्रन्थ मे श्रीराम की प्रकृति का दिग्दर्शन-
न च धर्मगुणैर्हीन: कौसल्यानन्दवर्धन:।
न च तीक्ष्णो हि भूतानां सर्वभूतहिते रताः।। 
अर्थात् - कौशल्या का आनंद बढ़ाने वाले श्रीराम धर्मसंबंधी गुणों से हीन नहीं हुए हैं। उनका स्वभाव भी किसी प्राणी के प्रति तीखा नहीं है। वे समस्त प्राणियों के हित में तत्पर रहते हैं।
हम सबका परम पुनीत कर्तव्य बनता है कि संपूर्ण मानवता के उत्थान में हमारी भी महती भूमिका हो, जिसकी प्रथम सीढ़ी माता-पिता के प्रति कृतज्ञता के भाव से शुभारंभ होती है। जिन तथाकथित लोकसेवियों द्वारा अपने अभिवावकों का तिरस्कार एवं उन्हें उनकी ही संपत्ति से छल-बल पूर्वक दर-दर भटकने के लिए मजबूर किया जाता है, वो एक लोकसेवी क्या सच्चे अर्थों में एक इंसान भी कहलाने लायक नहीं हैं।
✍️अमित निरंजन 
लेखक- समग्र नैतिक क्रान्ति द्रष्टा राष्ट्रादर्श श्रीराम
उन्नायक - श्रीराम नवमी राष्ट्रीय चरित्र दिवस अभियान
samagranaitikkranti@gmail.com 



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